हमारा जीवन रहस्यपूर्ण है। इतना कि इसका रहस्य शायद भगवान को भी नहीं मालूम। मालूम होता तो लक्ष्मण के शक्ति लगने पर भगवान के अवतार प्रभु राम इस तरह विलाप नहीं करते- जौं जनतेउं बन बंधु बिछोहू।? पिता बचन मनतेउं नहिं ओहू।
अर्थात यदि भाई से बिछुड़ना मुझे पता होता, तो मैंने पिता का वह वचन नहीं माना होता। जीवन की रहस्यपूर्णता के कारण ही दार्शनिकों, विचारकों एवं विद्वानों ने जिंदगी के रहस्यों को समझने की बहुत कोशिश की और अंतत: जिंदगी को नाटक की संज्ञा दे दी। नाटककार विलियम शेक्सपियर ने दुनिया को एक रंगमंच कहा था, तो गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने जीवन को ड्रामा (नाटक) के साथ साथ ड्रीम (स्वप्न) भी कहा।सच भी है। हमारा जीवन सिर्फ उतना ही सामने होता है, जितना गुजर गया है या फिर वर्तमान में है। भविष्य सचमुच रहस्यपूर्ण होता है। उसमें क्या होने वाला है, हम नहींजानते। हम एक ऐसे नाटक में शामिल हो जाते हैं, जिसमें हम सबको अपने हिस्से का अभिनय करना होता है।
अर्थात यदि भाई से बिछुड़ना मुझे पता होता, तो मैंने पिता का वह वचन नहीं माना होता। जीवन की रहस्यपूर्णता के कारण ही दार्शनिकों, विचारकों एवं विद्वानों ने जिंदगी के रहस्यों को समझने की बहुत कोशिश की और अंतत: जिंदगी को नाटक की संज्ञा दे दी। नाटककार विलियम शेक्सपियर ने दुनिया को एक रंगमंच कहा था, तो गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने जीवन को ड्रामा (नाटक) के साथ साथ ड्रीम (स्वप्न) भी कहा।सच भी है। हमारा जीवन सिर्फ उतना ही सामने होता है, जितना गुजर गया है या फिर वर्तमान में है। भविष्य सचमुच रहस्यपूर्ण होता है। उसमें क्या होने वाला है, हम नहींजानते। हम एक ऐसे नाटक में शामिल हो जाते हैं, जिसमें हम सबको अपने हिस्से का अभिनय करना होता है।
यह अभिनय ही हमारी असली परीक्षा होती है। क्योंकि जीवन ऐसा रंगमंच है, जिसमें हमें स्वयं ही इसकी पटकथा और संवाद तत्काल तय करने होते हैं। हमारे कार्य ही यह सिद्ध करते हैं कि हमें नायक की भूमिका निभानी है या खलनायक की। यह हम पर ही निर्भर करता है।
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भी ज्ञान की शिक्षा दी थी और दुर्योधन को भी। लेकिन दुर्योधन पर वह प्रभाव नहीं पड़ा, जो अर्जुन पर पड़ा। संग्राम को तत्पर अर्जुन जब मोह से ग्रस्त होकर युद्ध से मुकरने लगता है, तब श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना विराट रूप दिखाते हैं और उनसे कहते हैं, हे अर्जुन, जिन लोगों को तुम अपना भाई, ताऊ, चाचा, पितामह, मातामह आदि समझकर उनका वध करने से संकोच कर रहे हो, वे सब पहले ही कालरूपी मेरे मुख में समा चुके हैं। मैं तो सिर्फ तुमने निमित्त के रूप में नाटक में भूमिका अदा करने को कह रहा हूं। श्रीकृष्ण के उपदेशों को सुनकर अर्जुन ने वही भूमिका निभाई, जिसकी पटकथा श्रीकृष्ण ने तय कर दी थी।
उधर दुर्योधन को नीति और धर्म की शिक्षा देने जब श्रीकृष्ण गए, तो उसने भी उन शिक्षाओं को धैर्य से सुना और उनसे बोला, जानामि धर्मम न च मे प्रवृत्ति:, जानामि अधर्मम न च मे निवृत्ति:। त्वा हृषीकेश हृदिस्थितेन यथा नियुक्तोस्मि तथा करोमि। अर्थात हे श्रीकृष्ण, आप द्वारा बताए गए धर्म को मैं जानता हूं, पर वैसी मेरी प्रवृत्ति नहीं है। आपके अधर्म को भी मैं जानता हूं, पर उसे छोड़ नहीं सकता। आप तो हृदय में विराजने वाले अंतर्यामी हैं, आप मुझसे जैसा कराते हैं, मैं वैसा ही करता हूं।
दुर्योधन सब कुछ जानने के अहंकार में था, इसलिए वह अपनी प्रवृत्ति नहीं छोड़ सका। यह जानते हुए भी कि ईश्वर जैसा कराते हैं, वह करता है, फिर भी वह अधर्म को ही चुनता है।? वहीं अर्जुन ने श्रीकृष्ण की शिक्षाओं के बाद अपना मैं त्याग दिया था। चाचा, मामा, ताऊ, पितामह सब मैं के ही कारण थे। अहंकार का त्याग करने पर ही सही स्थिति स्पष्ट होती है। अहं को छोड़कर हम नायक बन सकते हैं, तो अहंकार को अपनाकर खलनायक।
अर्जुन और दुर्योधन की तरह हम भी जीवन के रंगमंच पर अपनी भूमिका निभाते हैं, लेकिन नहीं जानते कि किसकी विजय होगी और कौन पराजित होगा। लेकिन यह तो तय है कि अपनी भूमिका हमें खुद ही तय करनी होती है कि हमें नायक बनना है या खलनायक..।