head

Translate

This Article view

" काश वो दिन लौट आये Wish those days returned "

हैलो दोस्तों मैं पहली बार ब्लॉग लिख रही हूँ ,इसलिए कुछ सही न लगे तो माफ़ कीजियेगा। ये कोई कहानी नहीं बस हमारी जिंदगी की के कुछ किस्से है जो हमारे जहन में रह जाते या यूँ कह लो कुछ अच्छी बुरी ,खट्ठी मीठी याद है,कहा से शुरू कुछ समझ नहीं आ रहा है। लेकिन अब सोच रही हूँ वही से शुरू जहाँ से हमें दुनिया,अपना पराया , अच्छा बुरा इन सब के बारे में ना जानकारी होती है और न ही कोई  परेशानी, ऐसा होता है हमारा बचपन।

सब साथ में खेलते है रोते है फिर कुछ ही मिनटों में सब भूल कर आधे अधूरे आँसू आंखों में और उनकी कुछ बुँदे चेहरे पे लिए फिर से साथ में खेलने लगते है। कितना सुकून देता है वो लम्हा इसका एहसास  हमे अब महसूस होता है जब हम उसे याद करते है। ये छवि हमारे आँखों में घूमने लगती है। और हम अपने उन्ही दिनों में  लौट जाते लेकिन सिर्फ ख़्वाबों में क्योकि इसी से तो हमें सुकून और दर्द के लम्हो का एहसास होता है। की क्यूँ नहीं हम अपने उन लम्हो को खूबसूरत नहीं बना पाए। 
 बचपन के वो दिन खूब थे 
"न रिश्तों का मतलब पता था "
"न मतलब के रिश्ते थे "


खैर यादो के झरोखे से बाहर आते है बचपन में हम नानी के जाते थे गर्मियों की छुट्टियों में , किसी की शादी में  बहुत मजा आता था। और एक बात मोहल्ले की हर औरत जो नानी की उम्र की होती थी सब नानी और इसी तरह नाना के उम्र के सब नाना , मौसी के उम्र की सब मौसी , और मामा के उम्र के सब मामा इतने रिश्ते होते थे जिनकी कोई गिनती ही थी , दादा दादी के घर जब जाते थे तो वह भी सब यही हाल था चाचा चाची , ताया ताई , बस इन्हे रिश्तों में जीते थे और एक अपनेपन का अहसास हर वक़्त रहता था ,मौसी ,मामा , चाचा, ताया के सब बच्चे सब भाई बहन इतने रिश्ते की दोस्त की जरुरत ही महसूस नहीं होती थी एक दूजे से मिलने के लिए सब गर्मी की छुटियाँ का इंतज़ार करते थे सब छुटियों में नानी दादी के घर इकट्ठे होते खुद मस्ती करते कभी नदी किनारे कभी खेतों में कभी आम के पेड़ो से  और जब छुटियाँ खत्म होती थी तो मन उदास हो जाता था फिर सब अपने अपने घर अलग अलग शहरों में चले थे लेकिन कुछ मन उदास रहता था लेकिन कुछ समय बाद फिर छुटियों का इंतज़ार रहता था सब से मिलने के लिए।  
                   
                         " झूट बोलते थे पर सच्चे थे हम , ये उन दिनों की बात है जब बच्चे थे हम "



धीरे धीरे सब बड़े होते गए और धीरे धीरे सब रिश्ते भी दूर होते गए। बचपन में जब कुछ गलती होती थी तो सब आसानी भूल जाते थे और अब उसी गलती को लेकर रिश्तो से दुरी बन लेते है, आज अपनों से मिलने का समय नहीं है। सब कुछ पास  है लेकिन हम अपने रिश्ते नहीं संभाल पाए।  आज परिवार से ज्यादा लोग अकेले रहना पसंद करते है। कहीं न कहीं बचपन के साथ साथ बडो का बड़पन भी गुम हो गया है।

                                                                                                                                              अंजलि
                                                                                                                                            (लखनऊ )

No comments:

Post a Comment

chitika1

azn

Popular Posts